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हवा शहर की / शशि पुरवार

15 bytes added, 04:18, 22 जून 2020
पंछी मन ही मन घबराये।
यूँ, जाल बिछाये बैठे हैहैं
सब आखेटक मंतर मारे
आसमान के काले बादल
जैसे, जमा हुये है हैं सारे
छाई ऐसी घनघोर घटा
कुकुरमुत्ते सा, उगा हुआ है
गली गली, चौराहे खतराख़तरा
लुका छुपी का, खेल खेलते
वध जीवी ने, पर है कतरा
बेजान तन पर नाचते हैहैं
विजय घोष करते, यह साये।
पंछी उड़ता नीलगगन में
किरणे नयी सुबह ले आए।आये।
</poem>
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