|संग्रह=कनुप्रिया / धर्मवीर भारती
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जिसकी शेषशय्या पर
तुम्हारे साथ युगों-युगों तक क्रीड़ा की है
आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु!
जिसकी शेषशय्या पर<br>लहरों के नीले अवगुण्ठन मेंजहाँ सिन्दूरी गुलाब जैसा सूरज खिलता थावहाँ सैकड़ों निष्फल सीपियाँ छटपटा रही हैंतुम्हारे साथ युगों-युगों तक क्रीड़ा की है<br>और तुम मौन होआज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनु!<br><br>कि अगणित विक्षुब्ध विक्रान्त लहरेंफेन का शिरस्त्राण पहनेसिवार का कवच धारण किएनिर्जीव मछलियों के धनुष लिएयुद्धमुद्रा में आतुर हैं- और तुम कभी मध्यस्थ होकभी तटस्थकभी युद्धरत
लहरों के नीले अवगुण्ठन और मैंने देखा कि अन्त में<br>तुमजहाँ सिन्दूरी गुलाब जैसा सूरज खिलता था<br>थक करवहाँ सैकड़ों निष्फल सीपियाँ छटपटा रही हैं<br>इन सब से खिन्न, उदासीन, विस्मित औरकुछ- और तुम मौन कुछ आहतमेरे कन्धों से टिक कर बैठ गए हो<br>मैंने देखा कि अगणित विक्षुब्ध विक्रान्त लहरें<br>और तुम्हारी अनमनी भटकती उँगलियाँफेन का शिरस्त्राण पहने<br>तट की गीली बालू परसिवार का कवच धारण किए<br>कभी कुछ, कभी कुछ लिख देती हैंनिर्जीव मछलियों किसी उपलब्धि को व्यक्त करने के धनुष लिए<br>अभिप्राय से नहीं;युद्धमुद्रा मात्र उँगलियों के ठंढे जल में आतुर हैं<br>डुबोने का- और तुम कभी मध्यस्थ हो<br>कभी तटस्थ<br>कभी युद्धरत<br><br>क्षणिक सुख लेने के लिए!
और आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कि अन्त में तुम<br>थक कर<br>इन सब से खिन्न, उदासीन, विस्मित और<br>कुछ-कुछ आहत<br>मेरे कन्धों से टिक कर बैठ गए हो<br>और तुम्हारी अनमनी भटकती उँगलियाँ<br>तट की गीली बालू पर<br>कभी कुछ, कभी कुछ लिख देती हैं<br>किसी उपलब्धि को व्यक्त करने के अभिप्राय से नहीं;<br>मात्र उँगलियों के ठंढे जल में डुबोने का<br>क्षणिक सुख लेने के लिएकनु!<br><br>
आज उस समुद्र को मैंने स्वप्न में देखा कनुविष भरे फेन, निर्जीव सूर्य, निष्फल सीपियाँ, निर्जीव मछलियाँ…- लहरें नियन्त्रणहीन होती जा रही हैंऔर तुम तट पर बाँह उठा-उठा कर कुछ कह रहे होपर तुम्हारी कोई नहीं सुनता, कोई नहीं सुनता!<br><br>
विष भरे फेनअन्त में तुम हार कर, निर्जीव सूर्यलौट कर, निष्फल सीपियाँ, निर्जीव मछलियाँ….<br>थक कर- लहरें नियन्त्रणहीन होती जा रही हैं<br>मेरे वक्ष के गहराव मेंअपना चौड़ा माथा रख करगहरी नींद में सो गए हो…और तुम तट मेरे वक्ष का गहरावसमुद्र में बहता हुआ, बड़ा-सा ताजा, क्वाँरा, मुलायम, गुलाबीवटपत्र बन गया हैजिस पर बाँह उठातुम छोटे-उठा कर कुछ कह से छौने की भाँतिलहरों के पालने में महाप्रलय के बाद सो रहे हो<br>पर तुम्हारी कोई नहीं सुनता, कोई नहीं सुनता!<br><br>
अन्त नींद में तुम हार कर, लौट कर, थक कर<br>तुम्हारे होठ धीरे-धीरे हिलते हैं“स्वधर्म!…. आखिर मेरे वक्ष के गहराव में<br>लिए स्वधर्म क्या है?”अपना चौड़ा माथा रख कर<br>और लहरें थपकी देकर तुम्हें सुलाती हैंगहरी नींद में “सो जाओ योगिराज… सो गए हो……<br>जाओ… निद्रा समाधि है!”और मेरे वक्ष का गहराव<br>समुद्र नींद में बहता हुआतुम्हारे होठ धीरे-धीरे हिलते हैं“न्याय-अन्याय, बड़ासद्-सा ताजाअसद्, क्वाँरा, मुलायम, गुलाबी<br>विवेक-अविवेक -वटपत्र बन गया कसौटी क्या है<br>? आखिर कसौटी क्या है?”जिस पर तुम छोटे-से छौने की भाँति<br>और लहरें थपकी देकर तुम्हें सुला देती हैंलहरों के पालने में महाप्रलय के बाद सो रहे हो“सो जाओ योगेश्वर… जागरण स्वप्न है, छलना है, मिथ्या है!<br><br>”
नींद में तुम्हारे माथे पर पसीना झलक आया हैऔर होठ धीरे-धीरे हिलते काँप रहे हैं<br>“स्वधर्म!…. आखिर मेरे लिए स्वधर्म क्या है?”<br>और तुम चौंक कर जाग जाते होऔर लहरें थपकी देकर तुम्हें सुलाती हैं<br>कोई भी कसौटी नहीं मिलतीऔर जुए के पासे की तरह तुम निर्णय को फेंक देते हो“सो जाओ योगिराज… सो जाओ… निद्रा समाधि जो मेरे पैताने है!”<br>वह स्वधर्मनींद में तुम्हारे होठ धीरे-धीरे हिलते हैं<br>“न्याय-अन्याय, सद्-असद्, विवेक-अविवेक -<br>कसौटी क्या है? आखिर कसौटी क्या जो मेरे सिराहने है?”<br>वह अधर्म……और यह सुनते ही लहरें थपकी देकर तुम्हें सुला देती घायल साँपों-सी लहर लेने लगती हैं<br>“सो जाओ योगेश्वर… जागरण स्वप्न है, छलना है, मिथ्या और प्रलय फिर शुरू हो जाती है!”<br><br>
तुम्हारे माथे पर पसीना झलक आया है<br>और होठ काँप रहे हैं<br>और तुम चौंक फिर उदास हो कर जाग किनारे बैठ जाते हो<br>और तुम्हें कोई भी कसौटी नहीं मिलती<br>विषादपूर्ण दृष्टि से शून्य में देखते हुएऔर जुए के पासे की तरह तुम निर्णय को फेंक देते कहते हो<br>जो - “यदि कहीं उस दिन मेरे पैताने है वह स्वधर्म<br>जो मेरे सिराहने है वह अधर्म……<br>दुर्योधन होता तो… आहऔर यह सुनते ही लहरें<br>इस विराट् समुद्र के किनारे ओ अर्जुन, मैं भीघायल साँपों-सी लहर लेने लगती हैं<br>अबोध बालक हूँ!और प्रलय फिर शुरू हो जाती है<br><br>आज मैंने समुद्र को स्वप्न में देखा कनु!
और तुम फिर उदास हो कर किनारे बैठ जाते हो<br>और विषादपूर्ण दृष्टि से शून्य तट पर जल-देवदारुओं में देखते हुए<br>कहते हो बार- “यदि कहीं उस दिन मेरे पैताने<br>बार कण्ठ खोलती हुई हवादुर्योधन होता तो…………………………… आह<br>के गूँगे झकोरे,इस विराट् समुद्र बालू पर अपने पगचिन्ह बनाने के किनारे ओ अर्जुनकरुण प्रयास मेंबैसाखियों पर चलता हुआ इतिहास, मैं भी<br>अबोध बालक हूँ!<br>… लहरों में तुम्हारे श्लोकों से अभिमंत्रित गांडीवगले हुए सिवार-सा उतरा आया है...और अब तुम तटस्थ हो और उदास
आज मैंने समुद्र को स्वप्न में देखा कनुके किनारे नारियल के कुंज हैंऔर तुम एक बूढ़े पीपल के नीचे चुपचाप बैठे होमौन, परिशमित, विरक्तऔर पहली बार जैसे तुम्हारी अक्षय तरुणाई परथकान छा रही है!<br><br>
तट पर जल-देवदारुओं में<br>और चारों ओरबार-बार कण्ठ खोलती हुई हवा<br>एक खिन्न दृष्टि से देख करके गूँगे झकोरे,<br>एक गहरी साँस ले करबालू पर अपने पगचिन्ह बनाने के करुण प्रयास में<br>बैसाखियों पर चलता हुआ तुमने असफल इतिहास,<br>को… लहरों में तुम्हारे श्लोकों से अभिमंत्रित गांडीव<br>गले हुए सिवार-सा उतरा आया है……<br>और अब तुम तटस्थ हो और उदास<br><br>जीर्णवसन की भाँति त्याग दिया है
समुद्र के किनारे नारियल के कुंज हैं<br>और तुम एक बूढ़े पीपल के नीचे चुपचाप बैठे हो<br>इस क्षणमौन, परिशमित, विरक्त<br>केवल अपने में डूबे हुएऔर पहली बार जैसे तुम्हारी अक्षय तरुणाई पर<br>दर्द में पके हुएथकान छा रही तुम्हें बहुत दिन बाद मेरी याद आई है!<br><br>
और चारों ओर<br>काँपती हुई दीप लौ जैसेएक खिन्न दृष्टि से देख कर<br>पीपल के पत्तेएक गहरी साँस ले -एक कर<br>तुमने असफल इतिहास को<br>जीर्णवसन की भाँति त्याग दिया है<br><br>बुझ गए
और इस क्षण<br>केवल अपने में डूबे हुए<br>दर्द में पके हुए<br>तुम्हें बहुत दिन बाद मेरी याद आई है!<br><br>उतरता हुआ अँधियारा…
काँपती हुई दीप लौ जैसे<br>समुद्र की लहरेंपीपल के पत्ते<br>अब तुम्हारी फैली हुई साँवरी शिथिल बाँहें हैंएक-एक कर बुझ गए<br><br>भटकती सीपियाँ तुम्हारे काँपते अधर
उतरता हुआ अँधियारा……<br><br>और अब इस क्षण में तुमकेवल एक भरी हुईपकी हुईगहरी पुकार हो...
समुद्र की लहरें<br>अब तुम्हारी फैली हुई साँवरी शिथिल बाँहें हैं<br>भटकती सीपियाँ तुम्हारे काँपते अधर<br><br> और अब इस क्षण में तुम<br>केवल एक भरी हुई<br>पकी हुई<br>गहरी पुकार हो………<br><br> सब त्याग कर<br>मेरे लिए भटकती हुई……हुई…</poem>