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खूंटियों पर टांगते हम
बेहिचक अपने अपनी उदासी।
मौन दरवाजे संजोतीं संजोती
भोर से करतीं प्रतीक्षा
स्वेदकण भी साँझ ढलते
बाँचने लगते समीक्षा
सिर झुकाए सूना करतीं करती
जिन्दगी की उलटवासी।
सोचतीं रहतीं सोचती रहती न कहतीं कहती
अनमने मन की व्यथा को
पीढ़ियों से सुन रहीं रही हैं अनकही धूसर कथा को ।
जब अबोलापन सताता
क्लांत मन भरतीं भरती उवासी।
रातभर करतीं रात भर करती छिपाकर
हर थकन की मेजबानी
सोखतीं सोखती परिधान से वे
उलझनों की तर्जुमानी
बोझ ढोतीं ढोती ख्वाहिशों का माँगतीं दिखतीं दिखती दुआ सी।
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