{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=|संग्रह=सतरंगिनी / हरिवंशराय बच्चन
}}
{{KKCatKavita}}<poem>
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!
ज़मीन है न बोलती,
न आसमान बोलता,
जहान देखकर मुझे
नहीं ज़बान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ
न अजनबी गिना गया,
कहाँ-कहाँ न फिर चुका
दिमाग-दिल टटोलता;
कहाँ मनुष्य है कि जो
उमीद छोड़कर जिया,
इसीलिए अड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो;
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो;
तिमिर-समुद्र कर सकी
न पार नेत्र की तरी,
विनष्ट स्वप्न से लदी,
विषाद याद से भरी,
न कूल भूमि का मिला,
न कोर भेर की मिली,
न कट सकी, न घट सकी
विरह-घिरी विभावरी;
कहाँ मनुष्य है जिसे
कमी खली न प्यार की,
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे दुलार लो!
इसीलिए खड़ा रहा
कि तुम मुझे पुकार लो!
उजाड़ से लगा चुका
उमीद मैं बाहर की,
निदाघ से उमीद की,
वसंत से बयार की,
मरुस्थली मरीचिका
सुधामयी मुझे लगी,
अँगार से लगा चुका
उमीद मैं तुषार की;
कहाँ मनुष्य है जिसे
न भूल शूल-सी गड़ी,
इसीलिए खड़ा रहा
कि भूल तुम सुधार लो!
इसीलिए खड़ा रहा कि तुम मुझे पुकार लो!
पुकार कर दुलार लो, दुलार कर सुधार लो!
</poem>