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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=
|संग्रह=मिलन यामिनी / हरिवंशराय बच्चन
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<poem>
प्‍यार, जवानी, जीवन इनका
जादू मैंने सब दिन माना।
जादू मैंने सब दिन माना।   यह वह पाप जिसे करने से  
भेद भरा परलोक डरता,
 यह वह पाप जिसे कर कोई  कब जग के दृग से बच पाता,  यह वह पाप झगड़ती आई  जिससे बुद्धि सदा मानव की,  यह वह पाप मनन भी जिसका  कर लेने से मन शरमाता;  तन सुलगा, मन ड्रवित, भ्रमित कर  बुद्धि, लोक, युग, सब पर छाता,  हार नहीं स्‍वीकार हुआ तो  
प्‍यार रहेगा ही अनजाना।
 
प्‍यार, जवानी, जीवन इनका
 
जादू मैंने सब दिन माना।
 डूब किनारे जाते हैं जब  नदी में जोबन आता है,  कूल-तटों में बंदी होकर  लहरों का दम घुट जाता है,  नाम दूसरा केवल जगती  जंग लगी कुछ जंजीरों का, जिसके अंदर तान-तरंगें  
उनका जग से क्‍या नाता है;
 मन के राजा हो तो मुझसे  लो वरदान अमर यौवन का,  
नहीं जवानी उसने जानी
 
जिसने पर का वंधन जाना।
 
प्‍यार, जवानी, जीवन इनका
 
जादू मैंने सब दिन माना।
 फूलों से, चाहे आँसु से  मैंने अपनी माला पोही,  किंतु उसे अर्पित करने को  बाट सदा जीवन की जोही,  गई मुझे ले भुलावा  दे अपनी दुर्गम घाटी में,  
किंतु वहाँ पर भूल-भटककर
 
खोजा मैंने जीवन को ही;
 
जीने की उत्‍कट इच्‍छा में
 था मैंने, ‘आ मौत’ पुकारा।  वर्ना मुझको मिल सकता था  मरने का सौ बार बहाना।  
प्‍यार, जवानी, जीवन इनका
 
जादू मैंने सब दिन माना।
</poem>
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