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{{KKRachna
|रचनाकार=हरिवंशराय बच्चन
|अनुवादक=
|संग्रह=प्रारंभिक रचनाएँ / हरिवंशराय बच्चन
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<poem>‘अहे, मैंने कलियों के साथ,<br>जब मेरा चंचल बचपन था,<br>महा निर्दयी मेरा मन था,<br>अत्याचार अनेक किए थे,<br>कलियों को दुख दीर्घ दिए थे, <br>तोड़ इन्हें बागों से लाता,<br>छेद-छेद कर हार बनाता !<br>क्रूर कार्य यह कैसे करता,<br>सोंच इन्हें हूँ आहें भरता।<br>कलियो, तुमसे क्षमा माँगते ये अपराधी हाथ।’<br><br>
‘अहे, वह मेरे प्रति उपकार !<br>कुछ दिन में कुम्हला ही जाती,<br>गिरकर भूमि समाधि बनाती।<br>कौन जानता मेरा खिलना ?<br>कौन, नाज़ से डुलना-हिलना ?<br>कौन गोद में मुझको लेता ?<br>कौन प्रेम का परिचय देता ?<br>मुझे तोड़ की बड़ी भलाई,<br>काम किसी के तो कुछ आई,<br>बनी रही दे-चार घड़ी तो किसी गले का हार।’<br><br>
‘अहे, वह क्षणिक प्रेम का जोश !<br>सरस-सुगंधित थी तू जब तक,<br>बनी स्नेह-भाजन थी तब तक।<br>जहाँ तनिक-सी तू मुरझाई, <br>फेंक दी गई, दूर हटाई।<br>इसी प्रेम से क्या तेरा हो जाता है परितोष ?’<br>‘बदलता पल-पल पर संसार <br>हृदय विश्व के साथ बदलता, <br>प्रेम कहाँ फिर लहे अटलता ?<br>इससे केवल यही सोचकर,<br>लेती हूँ सन्तोष हृदय भर—<br>
मुझको भी था किया किसी ने कभी हृदय से प्यार !
</poem>
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