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|पीछे=द्वितीय प्रश्न / भाग १ / प्रश्नोपनिषद / मृदुल कीर्ति
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<span class="mantra_translation">
हे प्राण तू ही प्रजापति, करे गर्भ में विचरण तू ही,<br>
पितु - मातु के अनुरूप, शिशु का जन्म लेता है तू ही।<br>
प्राणों की तृप्ति को अन्न भक्षण, कर्म केन्द्र तू ही, तू ही,<br>
अस्तित्व प्राणी का प्राण से, सब प्राणियों में है तू ही॥ [ ७ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
हे प्राण तू ही देवताओं के छवि का साधक अग्नि है,<br>
पितरों की पहली स्वधा है और प्राण की पंचाग्नि है।<br>
तू ही अथर्वांगिरस ऋषियों का अनुभव सत्य है,<br>
तू ही जगत का प्राण तत्व है, प्राण बिन जग मृत्य है॥ [ ८ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
हे प्राण तू त्रैलोक स्वामी, तेज पुंज है इन्द्र तू,<br>
संहार कर्ता प्रलय काले, रूप प्राण का रुद्र तू।<br>
ज्योतिर्गनों का स्वामी रवि तू, भू,चन्द्र, तारे, अनिल तू,<br>
रक्षक व् पोषक तू ही तू दिवि अन्तरिक्षे अनल तू॥ [ ९ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
जब मेघ रूप में प्राण पृथ्वी पर सकल वर्षा करें,<br>
पर्याप्त अन्न की कामना , तेरी प्रजा हर्षा करे।<br>
निर्वाह जीवन का सरस , आनंद मय हो जाएगा,<br>
यह जान हर्षित प्राणी प्रति मन मुदित महिमा गायेगा॥ [ १० ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
हैं संस्कार विहीन फिर भी प्राण अतिशय श्रेष्ठ हैं,<br>
एकर्ष पोषण अन्न से, हम करते जिसका यथेष्ट हैं।<br>
आकाश चारी समिष्ट वायु रूप प्राण पिता तू ही,<br>
अति श्रेष्ट ईशानं जगत का, अन्न का भोक्ता तू ही॥ [ ११ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
मन श्रोत्र, वाणी , चक्षुओं में , प्राण का जो रूप है,<br>
इन्द्रियों अन्तःकरण की वृति में जो अनूप है।<br>
हे प्राण तुम कल्याणमय होकर रहो स्थित यहीं,<br>
न ही देह से करो उत्क्रमण, मम भावः है अर्पित यही॥ [ १२ ]<br><br>
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<span class="mantra_translation">
स्वर्ग लोक में, दृश्य जग में, जो भी कुछ दृष्टव्य है,<br>
सब प्राण के ही अधीन है और प्राणमय गंतव्य है।<br>
माता के सम हे प्राण ! तुम रक्षा करो पोषण करो,<br>
दो कार्य क्षमता , कान्ति श्री, प्रज्ञा का संप्रेषण करो॥ [ १३ ]<br><br>
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