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भावना के हिमशिखर से / अंकित काव्यांश
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04:33, 3 अगस्त 2020
लौटना तुमको नही है इसलिए ही
देह घाटी में सदा अब
नहीँ
नहीं
जाओ नहीं जाओ नहीं जाओ
यही स्वर गूँजना है।
अब स्वयं ही तुम सम्भालो व्यंजनाएं।
तुम नया उपमान गढ़ दो प्रेम का अब
तोड़कर अलकापुरी की
वर्जनायें।
वर्जनाएं।
मेघदूतों की प्रथा भी अब नही है
Abhishek Amber
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