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|रचनाकार=रमेश तन्हा
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|संग्रह=तीसरा दरिया / रमेश तन्हा
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<poem>
हमारी राह में ये आ गये शजर कैसे
भटक गये हैं तो पहुंचेंगे अपने घर कैसे।

न हादिसा ही कोई और न मोजज़ा हूँ मैं
मुझे यूँ देख रहा है ये हर बशर कैसे?

ये शहर पिछले बरस किस क़दर चहकता था
इस एक साल ही में हो गया खण्डर कैसे।

मैं जानता हूँ बस इक दो नफ़स हैं साथ मिरे
हवा को मान लूं फिर अपनी हम सफ़र कैसे?

हमारी राह जुदा थी हमारी राह जुदा
हम आ के मिल गये फिर एक मोड़ पर कैसे?

अब अपनी राहें यहां से अलग अलग होंगी
हम एक साथ रहेंगे हयात भर कैसे?

मिरी तरफ से तो ऐसा न कुछ हुआ सर-ज़द
दिलों में बस गया लोगों के फिर ये डर कैसे?

बिगाड़ देते हैं अच्छी भली हरिक सूरत
हमारे अहद के हैं साहिबे-हुनर कैसे?

सुना तो ये था कि सुनता नहीं किसी की वो
तिरे कहे का फिर उस पर हुआ असर कैसे?

वो खुद तो मिलता है आईना बन के सब से मगर
खुद आईने ही से करता है दर-गुज़र कैसे?

तुम आखिर उस से, ख़िलाफ़े-उमीद, उलझ ही पड़े
वही हुआ कि जो होना न था, मगर कैसे?

समय का फेर तो देखो तनावरों को भी
हवा बिखेर रही है इधर उधर कैसे?

तुम्हारे शहर में , सोचो तो क्या नहीं मिलता
तुम ऐसे फिरते हो 'तन्हा' ये दर-बदर कैसे?


</poem>
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