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{{KKRachna
|रचनाकार= सुरेन्द्र डी सोनी
|अनुवादक=
|संग्रह=मैं एक हरिण और तुम इंसान / सुरेन्द्र डी सोनी
}}
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<poem>
कुछ भी
इम्पॉसिबल नहीं..
क्यों नहीं हो सकता रात
यह दिन –

करके दिखाओ...
भरी दुपहरी में
डाल के मुँह पे कपड़ा
वह बोला –
लो, रात हो गई...
चाहो तो
तुम भी ऐसा कर सकते हो...

सबने उसे बेवक़ूफ़ कहा
बेवक़ूफ़ !
बेवक़ूफ़ !!
बेवक़ूफ़..!!!

इसी बेवक़ूफ़ी में
शाम हुई
रात हुई...

आधी रात को
किसी एक ने उससे कहा
कि हटाकर कपड़ा चेहरे से
दिन करो ना..
उसने हटाया कपड़ा
मुस्कराया
और बोला -
दिन ही तो है..
</poem>
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