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07:31, 17 अगस्त 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=हरिमोहन सारस्वत
|संग्रह=
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<poem>
आ थोड़ा सुवारथी बणा
घड़ी स्यात
अर जीवां कीं सांसा
फगत आप सारू.
कै नाम तो अवस है आपणा
इण लाम्बी सी जिया जूण माथै
पण म्हूं अर थूं
कद जी आ जूण
आपरी इणछा मुजब ?
सांची बताई-
बरस दर बरस
निसरती जिनगाणी
ज्यूं टोपै-टोपै पाणी री
धोबै भरी कहाणी
जिण में सूंपिज्यो
तन्नै अर मन्नै
बस हंकारै भरणै रो काम.
आपां सुणता रया
बांरै श्रीमुख सूं
भांत-भांत री बातां
जिकी बैे परूसता रया
रोटी जिम्यां रै पछै
डकार लेवण सारू.
ना बात आपणी ना कहाणी
बस हंकारो
कै कठई बै रूस नीं जावै.
इण अणचिन्ती चिन्ता मांय
आपांरा चैरा कद बुझ्या
अर काळा केस कद होग्या धोळा
ओ ठाह ई नीं लाग्यो.
पण आज जद चाणचकै...
बगत रै काच साम्ही
हंकारो भरतां
पळक्यो थारों बुझ्योड़ो चैरो
दियै री बाती रै
छेकड़लै उजास दांई
म्हारै अन्तस घट
च्यानणो उतरयो
जुगां पछै बापरी
अेक उजळी आस
हंकारै री ठौड़
हंकारो छोड़
सुवारथी बण जावण री.
तो आ जीवां छेकड़लो उजास
फगत आप सारू
</poem>
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