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07:49, 17 अगस्त 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=हरिमोहन सारस्वत
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<poem>
उन्होने हंसते हुए कहा-
दुनिया बहुत बड़ी है
तुम कुएं के मेंढ़क हो
छोटी जगह पर जो रहते हो
मैं मुस्कुरा दिया
मैं जानता हूं
उस बड़ी सी दुनिया में रहने वालों को
शायद नहीं पता
इतने बड़े ब्रह्यण्ड में
जहां अलेखूं सूरज रोज उगते हैं
अनेक पृथ्वीयां
रोज उल्का पिण्ड सी गिरती है
वहां उनकी बड़ी सी दुनिया की बिसात
टूटते तारे से ज्यादा
कुछ भी तो नहीं
इसीलिए मैं खुश हूं
इस छोटी सी जगह पे
जहां मैं जीता हूं
मेरा अपना जीवन
अपनों के साथ
उनकी नजरों में
कुएं का मेंढ़क बन कर
</poem>
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