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{{KKRachna
|रचनाकार=रघुनाथ शाण्डिल्य
|अनुवादक=
|संग्रह=सन्दीप कौशिक
}}
<poem>
'''काशी के बाजार में, फिरता हूं लाचार मैं,'''
'''कर्ज के खातिर फिरूं बेचता, लोगों अपनी नार मैं ।।टेक।।'''

कोई वरदा ले लियो मोल, कहूं बजा के ढोल,
इसी विरह में तबियत मेरी, हो गई डांवा डोल,
नहीं निकलता बोल,
बेचूं नहीं उधार मैं, ऋषि का कर्जदार मैं,
जो कोई लेगा मोल, रहूंगा उसका ताबेदार मैं।।1।।

फूट गई तकदीर, ना चलती तदबीर,
कल तक तो थे राज के मालिक, बनगे आज फकीर,
बिगड़ गई तहरीर,
कदे बैठे थे दरबारां में, रहें थे गरमा चार में,
वे ही तीनों आज बिकेंगे, साठ सोरन के भार में।।2।।

यू बेटा मेरा रोहताश, है कैसा खड़ा उदास,
दो दिन हो गये इसे, मिला ना अन्न का ग्रास,
हो लिया घणा निराश,
कैसे करल्यूं पार मैं, दुखों की भरमार मैं,
सत के कारण आज बेचदूं, मां बेटे की लार मैं।।3।।

ये रणवासों की हूर, झड़ग्या इसका नूर,
कई रोज हुए चलते-चलते, मंजिल है घणी दूर,
हो गये हम मजबूर,
संशय के संसार में, कैसे उतरूं पार मैं,
कहै रघुनाथ आज करूंगा, जिन्दगी का उद्धार मैं।।4।।
</poem>
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