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रश्मिरथी / तृतीय सर्ग / भाग 6

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|सारणी=रश्मिरथी / रामधारी सिंह "दिनकर"
}}
{{KKCatKavita}}<poem>"विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,
:चलता ना छत्र पुरखों का धर. अपना बल-तेज जगाता है,
अपना बल-तेज जगाता है,  :सम्मान जगत से पाता है.  सब देख उसे ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं
"कुल-गोत्र नही साधन मेरा,
पुरुषार्थ एक बस धन मेरा.
कुल ने तो मुझको फेंक दिया,
"कुल-गोत्र नही साधन मेरामैने हिम्मत से काम लियाअब वंश चकित भरमाया है,
:पुरुषार्थ एक बस धन मेराखुद मुझे ढूँडने आया है. "लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या?
कुल ने तो मुझको फेंक दियाअपने प्रण से विचरूँगा क्या?रण मे कुरूपति का विजय वरण,
:मैने हिम्मत से काम लिया अब वंश चकित भरमाया है,  खुद मुझे ढूँडने आया है.   "लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या?  :अपने प्रण से विचरूँगा क्या?  रण मे कुरूपति का विजय वरण,  :या पार्थ हाथ कर्ण का मरण,  हे कृष्ण यही मति मेरी है,
तीसरी नही गति मेरी है.
"मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार-योग्य होगा वह नर,
"मैत्री की बड़ी सुखद छाया,  :शीतल हो जाती है काया,  धिक्कार-योग्य होगा वह नर,  :जो पाकर भी ऐसा तरुवर,  
हो अलग खड़ा कटवाता है
खुद आप नहीं कट जाता है. "जिस नर की बाह गही मैने,
जिस तरु की छाँह गहि मैने,
उस पर न वार चलने दूँगा,
"जिस नर की बाह गही मैनेकैसे कुठार चलने दूँगा,जीते जी उसे बचाऊँगा,
:जिस तरु की छाँह गहि मैनेया आप स्वयं कट जाऊँगा,"मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
उस पर न वार चलने दूँगा, कब उसे तोल सकता है धन?धरती की तो है क्या बिसात?
:कैसे कुठार चलने दूँगा,  जीते जी उसे बचाऊँगा,  या आप स्वयं कट जाऊँगा,   "मित्रता बड़ा अनमोल रतन,  :कब उसे तोल सकता है धन?  धरती की तो है क्या बिसात?  :आ जाय अगर बैकुंठ हाथ.  उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरूपति के चरणों में धर दूँ.
"सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,
 "सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,  :उस दिन के लिए मचलता हूँ,  
यदि चले वज्र दुर्योधन पर,
:ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर.  कटवा दूँ उसके लिए गला,  चाहिए मुझे क्या और भला?   "सम्राट बनेंगे धर्मराज,  :या पाएगा कुरूरज ताज,  लड़ना भर मेरा कम रहा,  :दुर्योधन का संग्राम रहा,  मुझको न कहीं कुछ पाना है,  केवल ऋण मात्र चुकाना है.   "कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?  :साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?  क्या नहीं आपने भी जाना?  :मुझको न आज तक पहचाना?  जीवन का मूल्य समझता हूँ,  धन को मैं धूल समझता हूँ.  
चाहिए मुझे क्या और भला?"धनराशि जोगना लक्ष्य नहींसम्राट बनेंगे धर्मराज,
:साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं. या पाएगा कुरूरज ताज,लड़ना भर मेरा कम रहा,
भुजबल से कर संसार विजयदुर्योधन का संग्राम रहा,मुझको न कहीं कुछ पाना है,
:अगणित समृद्धियों का सन्चय, केवल ऋण मात्र चुकाना है."कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?
दे दिया मित्र दुर्योधन को, साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?क्या नहीं आपने भी जाना?
तृष्णा छू भी ना सकी मन को. मुझको न आज तक पहचाना?जीवन का मूल्य समझता हूँ,
धन को मैं धूल समझता हूँ.
"धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं,
"वैभव विलास की चाह साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं.भुजबल से कर संसार विजय,
:अपनी कोई परवाह नहींअगणित समृद्धियों का सन्चय,दे दिया मित्र दुर्योधन को,
बस यही चाहता हूँ केवलतृष्णा छू भी ना सकी मन को."वैभव विलास की चाह नहीं,
:दान की देव सरिता निर्मलअपनी कोई परवाह नहीं,बस यही चाहता हूँ केवल,
दान की देव सरिता निर्मल,करतल से झरती रहे सदा,
निर्धन को भरती रहे सदा.
</poem>
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