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नदामत / अजय सहाब

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<poem>
सोचता हूँ ये ज़मीं किसकी ,वतन किसका है ?
इतने झगडे हैं गुलों में तो चमन किसका है ?
सोच में होगा वो धरती को बनाने वाला
उसने तहज़ीब का दस्तूर बनाया क्यों था ?
खूं बहाता हुआ नफ़रत का ये पुतला इंसां
ऐसा धरती पे ये नासूर बनाया क्यों था
वो जो पर्वत को हवाओं को भी तक़सीम<ref>विभाजन </ref> करे
वो जो बस क़त्ल को और ज़ुल्म को ताक़त माने
सारी मख़्लूक़<ref>प्राणी</ref> की खातिर जो बनी थी दुनिया
उसको बस अपनी ही इक नस्ल की दौलत माने
अपनी धरती का हर इक जीव है बच्चा उसका
सिर्फ़ इंसानों की जागीर नहीं है धरती
इस पे चिड़ियों का भी पौदों का बराबर हक़ है
ख़ातिरे इन्सां ही तामीर नहीं है धरती
लूटता ही नहीं इन्सां सा कोई धरती को
कितनी ही नस्लें बनी और मिटीं धरती में
अपनी धरती से वो लेती हैं ज़रुरत भर का
इतनी सदियों में जो नस्लें हैं पलीं धरती में
कब तलक जाएगा क़ुदरत से अदावत<ref>दुश्मनी</ref> करके
आ गया वक़्त कि इन्सां को सुधरना होगा
चीख उट्ठी है ये धरती कि बदल लो खुद को
हम को क़ुदरत के इशारों से तो डरना होगा
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