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तग़य्युर / अजय सहाब

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<poem>
मुद्दतों बाद अचानक तुम्हें देखा जो कहीं
तुममें, तुमसा कहीं कुछ भी नज़र आया ही नहीं
न वो चेहरा ,न तबस्सुम न वो भोली आँखें
ज़िन्दगी जिनकी तमन्ना में गुज़ारी मैंने
न वो लहजा ,न तकल्लुम<ref>बात चीत</ref> न वो अपनी सी महक
जिसकी खु़शबू मेरी साँसों में समा जाती थी
देर तक मैंने कहीं तुम में ही खोजा तुमको
तुमको पाया ही नहीं ,तुम तो कहीं थे भी नहीं
जो मुकम्मल कभी मेरा था ,फ़क़त मेरा था
आज उस शख़्स का तुम में कोई टुकड़ा भी नहीं
ये सरापा<ref>सर से पैर तक</ref> जो कोई अजनबी दिखता है मुझे
उसमें गुज़रे हुए अहसास का रेशा भी नहीं
बरसों पहले किसी शाइर ने कहा था शायद
''दिल बदलता है तो इन्सां भी बदल जाते हैं ''
</poem>
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