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दिल सलीके से उगा / निदा फ़ाज़ली

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|रचनाकार=निदा फ़ाज़ली
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|संग्रह=खोया हुआ सा कुछ / निदा फ़ाज़ली
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<poem>
दिन सलीके से उगा
 
रात ठिकाने से रही
 
दोस्ती अपनी भी कुछ
 
रोज़ ज़माने से रही |
 
चंद लम्हों को ही बनती हैं
 
मुसव्विर आँखें
 
ज़िन्दगी रोज़ तो
 
तसवीर बनाने से रही |
 
इस अँधेरे में तो
 
ठोकर ही उजाला देगी
 
रात जंगल में कोई शमअ
 
जलाने से रही |
 
फ़ासला, चाँद बना देता है
 
हर पत्थर को
 
दूर की रौशनी नज़दीक तो
 
आने से रही |
 
शहर में सबको कहाँ मिलती है
 
रोने की जगह
 
अपनी इज्जत भी यहाँ
 
हँसने-हँसाने में रही |
</poem>
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