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हो मालूम तुझे कुदरत के तिरस्कार की हद क्या है
ऐ इन्सान समझ ले पहले अहंकार की हद क्या है
कोरोना कुछ और नहीं है एक नसीहत भर केवल
बूझो इन्सानी फ़ितरत के अत्याचार की हद क्या है
बेचारे चमगादड़ को नाहक बदनाम किया जाता
अपना दामन झांक के देखो पापाचार की हद क्या है
 
रोज नया कानून बनाकर दे देती सरकार हमें
आज तलक हम जान न पाये इस सरकार की हद क्या है
 
पैसे के आगे सारे सम्बन्धों को बेबस देखा
कोई मगर बताए यह भी इस बाज़ार की हद क्या है
 
रिश्ता हो या कविता हो निर्वाह ज़रूरी है लेकिन
मगर तनिक यह भी तो जानो संस्कार की हद क्या है
 
गांव, शहर दोनों की हालत बिल्कुल इक जैसी दिखती
क्वारंटीन की मार सह रहे पर इस मार की हद क्या है
</poem>
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