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|रचनाकार=शंकरलाल द्विवेदी
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'''सामनु आयौ री!'''

घिरत गगन, घन-सघन, निरखि सखि! सामनु आयौ री!
सामनु आयौ री!
निरखि सखि! सामनु आयौ री!
पीत-भीत, धरनी-हरिनी कौ, हिय हरिआयौ री!
मनौं मनभाबन पायौ री।
निरखि सखि! सामनु आयौ री!

चलति मरुत म्रिदु-मन्द,
पुलक मन-मानस में छहरी।
उड़त खद्योत दसहुँ दिसि, लागत-
पाबस के प्रहरी।।
कै दीपाबलि के दीपक-
धरि पंख, पबन-पसरे।
किंधौ बिलोकन अबनि,
देब-गन धरनी पै उतरे।।
बोलत-डोलत काग मुँडेरनि,
रिमझिम बरसतु मेह।
मनौं बियोगिनि बिरहा गाबति,
भिजबति अँसुवनि देह।।
उमगतु जल, सब थल, लखि सुन्दर समद लजायौ री!
निरखि सखि! सामनु आयौ री!
</poem>
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