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23:55, 17 दिसम्बर 2020 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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<poem>
मत समझ तेरे ग़म ज़्यादा हैं
सब के हिस्से में कम ज़्यादा हैं
नम हुआ जा रहा है काग़ज़ भी
दर्द ज़ेरे क़लम ज़्यादा हैं
क़ैस होना हंसी मज़ाक़ नहीं
इश्क़ में पैच व ख़म ज़्यादा हैं
रो लिए कल तमाम ज़ख़्मों पर
आज हम ताज़ा दम ज़्यादा हैं
जो लपेटे हैं क़ीमती कपड़े
जिस्म वो मोहतरम ज़्यादा हैं
</poem>