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|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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<poem>जब तेरी तस्वीर बनाई काग़ज़ पर
बैठ गयी आकर इक तितली काग़ज़ पर

लिखने थे जुमले तारीफ़ी काग़ज़ पर
हमने लिख दी है नाराज़ी काग़ज़ पर

मज़दूरों की हालत ये बतलाती है
हमने की है ख़ूब तरक़्क़ी काग़ज़ पर

सच्चाई का मान भी थोड़ा रख लेते
झूट को तुमने ख़ूब जगह दी काग़ज़ पर

जिस्मों पर तादाद अलग है ज़ख़्मों की
लेकिन है कुछ और ही गिनती काग़ज़ पर

सच पूछो तो सब जेसा था वैसा है
दिखती है तो बस तब्दीली काग़ज़ पर

बदहाली का रोना लेकर बैठे हो
देखो कितनी है ख़ुशहाली काग़ज़ पर


</poem>