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{{KKRachna
|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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ख़ूब इतराए थे बुलंदी पर
पस्तियों में पड़े हुए हैं जो

उन चराग़ों का एहतराम करो
आंधियों से लड़े हुए हैं जो

ये ज़्यादा पढ़े हैं साहब से
हाथ बांधे खड़े हुए हैं जो

ख़ुद को बर्बाद कर के मानेंगे
अपनी ज़िद पर अड़े हुए हैं जो

मेरे अजदाद की कमाई है
ये ख़ज़ाने गड़े हुए हैं जो

ऐसे पत्तों का फिर ठिकाना कहाँ
शाख़ पर से झड़े हुए हैं जो
</poem>