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मौक़ा / श्रीविलास सिंह

11 bytes added, 14:24, 4 फ़रवरी 2021
<poem>
इतना भी नहीं है
बस में मौत के
कि वह दे सके मोहलत
किसी को
सलीके से मरने की।की ।
कि वह तैयार कर सके
अपनी समाधि पर चढ़ाने के लिए
फूलों का कर सके
इंतज़ामइन्तज़ामइत्मिनान से।से ।
किसी ग़ुलाम की तरह
मौत को तो बस
हुक्म हुक़्म बजाना हैअपने अज्ञात आका का।का ।
अपने काम की भी
न दिखती
पहली बार शिकार कर रहे
शिकारी की -सी हड़बड़ी।हड़बड़ी ।
काश ! वह किसी कोइतना भी वक्त वक़्त दे पाती
कि वह जी भर देख पाता
अपनी प्रेयसी का मुख
फिरा पाता
अपने बेटे की पीठ पर
स्नेह भरा हाथ।हाथ ।
पर शायद हत्यारों को भी डर है
उनके हृदय पाषाण और
उनका क्रूर तिलिस्म टूट न जाए
कविता की पहली दस्तक से ही।ही ।
शायद इसीलिए
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