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|रचनाकार=रामधारी सिंह "दिनकर"
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|संग्रह=हुंकार / रामधारी सिंह "दिनकर"
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<poem>
'''(उनके लिए जो जा चुके हैं)'''

कलम, आज उनकी जय बोल

जला अस्थियाँ बारी-बारी
छिटकाई जिनने चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

जो अगणित लघु दीप हमारे
तूफानों में एक किनारे,
जल-जलाकर बुझ गए, किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ
उगल रहीं लू लपट दिशाएं,
जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

अंधा चकाचौंध का मारा
क्या जाने इतिहास बेचारा?
साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य, चन्द्र, भूगोल, खगोल।
कलम, आज उनकी जय बोल।

'''(उनके लिए जो जीवित शहीद हैं)'''

नमन उन्हें मेरा शत बार।

सूख रही है बोटी-बोटी,
मिलती नहीं घास की रोटी,
गढ़ते हैं इतिहास देश का सह कर कठिन क्षुधा की मार।
नमन उन्हें मेरा शत बार।

अर्ध-नग्न जिन की प्रिय माया,
शिशु-विषण मुख, जर्जर काया,
रण की ओर चरण दृढ जिनके मन के पीछे करुण पुकार।
नमन उन्हें मेरा शत बार।

जिनकी चढ़ती हुई जवानी
खोज रही अपनी क़ुर्बानी
जलन एक जिनकी अभिलाषा, मरण एक जिनका त्योहार।
नमन उन्हें मेरा शत बार।

दुखी स्वयं जग का दुःख लेकर,
स्वयं रिक्त सब को सुख देकर,
जिनका दिया अमृत जग पीता, कालकूट उनका आहार।
नमन उन्हें मेरा शत बार।

वीर, तुम्हारा लिए सहारा
टिका हुआ है भूतल सारा,
होते तुम न कहीं तो कब को उलट गया होता संसार।
नमन तुम्हें मेरा शत बार।

चरण-धूलि दो, शीश लगा लूँ,
जीवन का बल-तेज जगा लूँ,
मैं निवास जिस मूक-स्वप्न का तुम उस के सक्रिय अवतार।
नमन तुम्हें मेरा शत बार।

'''(उन के लिए जो भविष्य के गर्भ में हैं)'''

आनेवालो! तुम्हें प्रणाम।

'जय हो', नव होतागण! आओ,
संग नई आहुतियाँ लाओ,
जो कुछ बने फेंकते जाओ, यज्ञ जानता नहीं विराम।
आनेवालो! तुम्हें प्रणाम।

टूटी नहीं शिला की कारा,
लौट गयी टकरा कर धारा,
सौ धिक्कार तुम्हें यौवन के वेगवंत निर्झर उद्दाम।
आनेवालो! तुम्हें प्रणाम।

फिर डंके पर चोट पड़ी है,
मौत चुनौती लिए खड़ी है,
लिखने चली आग, अम्बर पर कौन लिखायेगा निज नाम?
आनेवालो! तुम्हें प्रणाम।

(1938 ई0)
</poem>
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