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दराज़ / इब्बार रब्बी
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09:31, 2 मार्च 2021
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<poem>
बीच की
दराज
दराज़
में बन्द
हूं
हूँ
।ऊपर होता
हूं
हूँ
तो
पैर टूटता है
नीचे सरकता
हूं
हूँ
सिर फूटता है ।
मैं
कहां जाऊं
कहाँ जाऊँ
!क्या
करूं
करूँ
!कैसे
रहूं
रहूँ
इस अन्धेरे में !
कब तक काग़ज़ों से पिचका हुआ !
अनिल जनविजय
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