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हवायें संदली हैं / सोम ठाकुर
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03:41, 5 मार्च 2021
<poem>
हवाए संदली हैं
हम
बचे
बचें
कैसे
?
समय के विष बुझे
नाख़ून बढ़ते हैं
ज़रा जाने-
भला ये कौन है जो
आदमी
कि
की
खाल सेहर साज़
माढ़ते
मढ़ते
हैं?
समय के विष बुझे नाख़ून
बढ़ते है
।
</poem>
Arti Singh
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