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<poem>
हवाए संदली हैं
हम बचे बचें कैसे?
समय के विष बुझे
नाख़ून बढ़ते हैं
ज़रा जाने-
भला ये कौन है जो
आदमी कि की खाल सेहर साज़ माढ़ते मढ़ते हैं?
समय के विष बुझे नाख़ून
बढ़ते है
</poem>
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