{{KKRachna
|रचनाकार=केदारनाथ अग्रवाल
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|संग्रह=
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{{KKCatKavita}}<poem>पहला पानी गिरा गगन से उमँड़ा आतुर प्यार, हवा हुई, ठंढे दिमाग के जैसे खुले विचार । भीगी भूमि-भवानी, भीगी समय-सिंह की देह, भीगा अनभीगे अंगों की अमराई का नेह पात-पात की पाती भीगी-पेड़-पेड़ की डाल, भीगी-भीगी बल खाती है गैल-छैल की चाल । प्राण-प्राणमय हुआ परेवा,भीतर बैठा, जीव, भोग रहा है द्रवीभूत प्राकृत आनंद अतीव । रूप-सिंधु की लहरें उठती, खुल-खुल जाते अंग, परस-परस घुल-मिल जाते हैं उनके-मेरे रंग । नाच-नाच उठती है दामिने चिहुँक-चिहुँक चहुँ ओर वर्षा-मंगल की ऐसी है भीगी रसमय भोर । मैं भीगा, मेरे भीतर का भीगा गंथिल ज्ञान, भावों की भाषा गाती है
जग जीवन का गान ।
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