1,454 bytes added,
10:30, 19 अप्रैल 2021 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार= रामकिशोर दाहिया
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
छोरी हैं छोरे हैं
आम के टिकोरे हैं
मारकर लबेदों१ से
चुकनी भर झोरे हैं
छील रहे
छिलनी नाखून में
चटकारे लेते
लार भरे नून में।
भाव मिले घोड़े हैं
दौड़ते निगोड़े हैं
इक दूजे लड़ने को
भिड़ने को थोड़े हैं
मिलते हैं
एक घरी जून में
चटकारे लेते
लार भरे नून में।
मस्ती में डूबे हैं
घर से भी ऊबे हैं
जब देखो पढ़ना है
कैसे मनसूबे हैं
बचपना
बीतेगा जुनून में
चटकारे लेते
लार भरे नून में।
तीर हैं तराने हैं
खेल में लुभाने हैं
टेर रही अम्मा के
पास नहीं आने हैं
दौड़ रही
अमराई खून में
चटकारे लेते
लार भरे नून में।
-रामकिशोर दाहिया
</poem>