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| रचनाकार= विजय कुमार स्वर्णकार
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साँचे में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ
कुछ और पिघलने का हुनर सीख रहा हूँ

गिर-गिर के सँभलने का हुनर सीख लिया है
रफ़्तार से चलने का हुनर सीख रहा हूँ

मुमकिन है फ़लक छूने की तदबीर अलग हो
फ़िलहाल उछलने का हुनर सीख रहा हूँ

पूरब में उदय होना मुक़द्दर में लिखा था
पश्चिम में न ढलने का हुनर सीख रहा हूँ

कब तक मुझे घेरे में रखेंगी ये चटानें
रिस-रिस के निकलने का हुनर सीख रहा हूँ
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