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00:13, 16 मई 2021 {{KKGlobal}}
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| रचनाकार= विजय कुमार स्वर्णकार
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<poem>
कट चुका जंगल मगर ज़िद पर अड़ी है
एक चिड़िया घोंसला ले कर खड़ी है
ऐसे उधड़ा है बदन सूखी नदी का
जैसे कोई लाश लावारिस पड़ी है
खो दिया सब ताप बादल से लिपत कर
धूप भी किसकी मुहब्बते में पड़ी है
इस महल के सामने क्यों रुक गये तुम
सौ क़दम आगे वो अपनी झोंपड़ी है
याद रख हम एक छाते के तले हैं
भूल जा रिमझिम है ऊपर या झड़ी है
बींध रखा था तुम्हारा चित्र जिसने
कील वो दीवार में अब भी गड़ी है
आधी आबादी है भड़की हिमनदी-सी
अब किनारे डूब जाने की घड़ी है
</poem>