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00:14, 16 मई 2021 {{KKGlobal}}
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| रचनाकार= विजय कुमार स्वर्णकार
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<poem>
कोहरा है कि धुँधला-सा सपन ओढ़ रखा है
इस भोर ने क्या नंगे बदन ओढ़ रखा है
आ छत पे कि खीँचें कोई अपने लिए कोना
आ सिर्फ़ सितारों ने बदन ओढ़ रखा है
कुछ खुल के दिखा क्या है तेरे नील गगन में
कैसा ये धुँधलका मेरे मन ओढ़ रखा है
क्या बात है क्यों धूप ने मुँह ढाँप लिया और
आकाश ने बरसा हुआ घन ओढ़ रखा है
धुन क्या है तुम्हें बूझ के लगता है कुछ ऐसा
जैसे किसी नग़मे ने भजन ओढ़ रखा है
लाशों की है ये भीड़ ज़रा ग़ौर से देखो
ज़िंदा कई लाशों ने कफ़न ओढ़ रखा है
ऐ सर्द हवाओ! इसे चादर न समझना
फ़ुटपाथ ने मुफ़लिस का बदन ओढ़ रखा है
</poem>