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09:10, 20 मई 2021 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=महेंद्र नेह
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<poem>
हैं हम सब क़ैदख़ानों में ।
भले ही ट़्रेन में करते सफ़र
या बसों में हैं,
हो कुर्सी काठ की ए सी
हमारे आफ़िसों में हों,
भले ही हों मकानों में,
भले ही हों दुकानों में,
हैं हम सब - क़ैदख़ानों में ।
ग़ुलामों की न कोई जात
कोई पाँत होती है,
ग़ुलामी सिर्फ़ काली रात
काली रात होती है,
भले ही हम जुते हों खेत
या फिर कारख़ानों में
हैं हम सब क़ैदख़ानों में ।
अरे, सैय्याद ज़ालिम है
बहुत से रूप धरता है,
कभी शब्दों कभी हथियार
की बौछार करता है,
भले ही हम ज़मीं पर हों,
भले हों आसमानों में,
हैं हम सब क़ैदख़ानों में ।
</poem>