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10:04, 21 मई 2021 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अनामिका सिंह 'अना'
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<poem>
गौरेया कट्टी कर बैठी,
करे न कागा काँव ।
साथ नदी के देखो पानी,
गया नयन का सूख ।
सुरसा सम है मुख फैलाए,
आज अर्थ की भूख ।।
बिरवे काट रही भौतिकता ,
धूप पी रही छाँव ।
पूत कमाऊ की सालों से,
बाट जुहारे गैल ।
ओसारे में भादों उतरा,
टपक रही खपरैल ।
लाठी देख बुढ़ापे का अब
टूट रहा करिहाँव ।
चौमासे में अनगिन करते,
क्षेत्र निरन्तर जाप ।
जहाँ जरूरत वहीं बरसना
सुन सागर की भाप ।
पिछले बरस बहाये तूने,
कितने गाँव गिराँव ।
</poem>