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21:50, 28 मई 2021 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=अज़हर फ़राग़
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|संग्रह=
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<poem>
कोई भी शक़्ल मिरे दिल में उतर सकती है
इक रिफ़ाक़त में कहाँ उम्र गुज़र सकती है
तुझ से कुछ और तअ'ल्लुक़ भी ज़रूरी है मिरा
ये मोहब्बत तो किसी वक़्त भी मर सकती है
मेरी ख़्वाहिश है कि फूलों से तुझे फ़त्ह करूँ
वर्ना ये काम तो तलवार भी कर सकती है
हो अगर मौज में हम जैसा कोई अंधा फ़क़ीर
एक सिक्के से भी तक़दीर सँवर सकती है
सुब्ह-दम सुर्ख़ उजाला है खुले पानी में
चान्द की लाश कहीं से भी उभर सकती है
</poem>
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