829 bytes added,
04:25, 23 जुलाई 2021 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रेखा राजवंशी
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
रात फिर बोलती रहीं आँखें
राज़ सब खोलती रहीं आँखें
किस तरह ऐतबार कर पाते
हर तरफ डोलती रहीं आँखें
मेरे कपड़ों से, घर से, गाड़ी से
हैसियत तोलती रहीं आँखें
चेहरे कितने नकाब पहने थे
सूरतें मोलती रही आँखें
थी वहां मय, न साक़ी, पैमाने
पर नशा घोलती रहीं आँखें
</poem>