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|संग्रह=दरिया का पानी / रमेश रंजक
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<poem>
क़लम तुम्हारी !
कभी न सोई, कभी न हारी
ज्यों-ज्यों टूटी विपदाओं में
उतनी गहरी और धँस गई
जन-जीवन की संज्ञाओं में बारी-बारी
क़लम तुम्हारी !

क़लम तुम्हारी !
जिसने खोली जोंकों की चालाक कहानी —
चूस गई जो सख़्त हड्डियों की कुर्बानी
लूट गई जो बल से, छल से, भरी जवानी;
उन अन्धियारों तक जाने में कभी न चूकी
जहाँ ख़रीदी-बेची जाती धींगामस्ती में लाचारी
क़लम तुम्हारी !

क़लम तुम्हारी !
ख़ाली हाथों लड़ी सदा ताक़तवालों से
कभी न घबराई सत्ता के भूचालों से
निबल-सबल के संघर्षों में —
लड़-लड़ कर ज़ाँबाज़ हो गई
गूँगों की आवाज़ हो गई मंगलकारी
क़लम तुम्हारी !

क़लम तुम्हारी !
सीधी-सादी भाषा लेकर बोलचाल की
चली, धौंकनी जैसे चलती मरी खाल की
शब्दों का अँगार बनाकर
एक रोशनी सी फैलाकर
हर क़ातिल के लोहे को आँखें दिखलाकर
और तुम्हारी पगडण्डी में तुम्हें सुलाकर
आज हो गई सड़क हमारी
क़लम तुम्हारी !
</poem>
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