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धूमिल के लिए / रमेश रंजक
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08:59, 10 सितम्बर 2021
हमारे साथ के, चालीस तक भी रह नहीं पाए
समय की क़ातिलाना मार कह नहीं पाए
मिले जो सांस कहने को उसे
अच्छि
अच्छी
तरह गह ले !
यहाँ झरने लगे हैं फूल अपने वक़्त से पहले
मिली है ज़िन्दगी जितनी उसी में दास्ताँ कहले !
</poem>
अनिल जनविजय
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