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08:18, 11 सितम्बर 2021 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=यशोधरा रायचौधरी
|अनुवादक=मीता दास
|संग्रह=
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{{KKCatKavita}}
<poem>
पार्क के मध्य में एक जंगल जिम जगा रहता है
पूरी रात ओस गिरती है और लोहा ठण्डा होता है ।
और जंग लगा लोहा भी ।
भोर होते ही ओस से भीगा जंगला (लोहे के सामान)
मुक्ति की आस में जगा रहता है ;
फैन्टेसी की गति प्रबल होती रहती है ।
सूरज के उजाले में सबकी
मुक्ति की इच्छा भी धीरे-धीरे जाग उठती है ।
क़रीब ही झूले के फ्रेम से लटकी हुई ज़ंजीर
झूला विहीन; टूटकर निश्चल पड़ी है ।
सीट लकड़ी की कोई न जाने कब ले गया खोलकर ।
जंगल जिम के पोरों में कितनी ही स्मृतियाँ, कलरव
शिशुओं के अटके हुए हैं,
बैरेक के दरिद्र शिशुओं के और छोटी-छोटी बस्तियों के शिशुओं के भी ।
अब वहाँ सीने तक बढ़ आई है घास
लोहे के जंगले ढक जाते हैं और जंग क्रमशः बढ़ने लगती है उनमे
पूरे पार्क को घेरकर चल रही है प्रतीक्षा नए-नए शिशुओं की
और घास
पूरे पार्क को घेरकर बना रहा है जंग लगा लोहा ।।
क़रीब ही आपातस्थिति में बने अधबने मकान
बम के धमाकों से क्षतिग्रस्त, टूटे मकान
एक टॉवर से दूसरे टॉवर को जोड़ने के लिए
अवश, मृत सिर्फ़ लोहे की निकली हुई छड़ें और
दीवारों में बने छेदों से झाँकती लोहे की ये छड़ें
ऐसी दिखती हैं जैसे किसी ने नोच ली हो उनकी आँखें ।
सारी रात ओस गिरती रहती है
और लोहा ठण्डा होता रहता है,
जंग लगा लोहा भी ।
एक मोहल्ले के बाद दूसरा मोहल्ला आएगा
रूपान्तरित होता रहेगा जंगल जिम;
अकेला निरा अकेला ही .... अपने आप ही ....
इन्तज़ार ....
क्रमशः लोहे से अयस्क
और अयस्क से पौधे में ।
'''मूल बांगला से अनुवाद : मीता दास'''
</poem>