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<poem>
बुद्ध ! तुम्हारे भीतर क्या? जो तुम ही बुद्ध हुए हो
मुझ में ऐसा क्या छूटा जो, मैं, बस, केवल मैं हूँ

या तो तुमने अपने भीतर ख़ुद को खोजा होगा
या दुनिया से परे आत्मा का अनुपम सुख भोगा
या फिर मन को और वचन को तुमने एक किया है
या फिर इतना समझा, जीवन, बस, भ्रम का पहिया है

बुद्ध ! बताओ उत्तर क्या? जो प्रतिपल शुद्ध हुए हो
मुझ में ऐसा क्या छूटा जो इतना बेकल मैं हूँ

तुम भी वहीं भोग सकते थे वैभव राजमहल का
रख सकते थे मान किसी की आँखों के काजल का
कर लेते उपयोग सम्पदा के अक्षुण दल-बल का
किन्तु रास्ता चुन बैठे तुम अन्तहीन जंगल का

बुद्ध ! बताओ नश्वर क्या? जो जगत-विरुद्ध हुए हो
मुझमे ऐसा क्या छूटा जो अब तक पागल मैं हूँ

आतम के गहरे सागर में गोताख़ोर हुए तुम
अथवा पर की पीर देखकर भाव विभोर हुए तुम
सत्य चिरन्तन के अन्तस में एक हिलोर हुए तुम
तभी सुगन्धित इतने ज़्यादा चारों ओर हुए तुम

बुद्ध ! तुम्हारा ज़ेवर क्या? जो तपकर शुद्ध हुए हो
मुझमे ऐसा क्या छूटा जो अब तक पीतल मैं हूँ
</poem>
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