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09:58, 14 अक्टूबर 2021 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रामावतार त्यागी
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भूमि के विस्तार में बेशक कमी आई नहीं है
आदमी का आजकल आकाश छोटा हो गया है ।
हो गए सम्बन्ध सीमित डाक से आए ख़तों तक
और सीमाएँ सिकुड़कर आ गईं घर की छतों तक
प्यार करने का तरीका तो वही युग–युग पुराना
आज लेकिन व्यक्ति का विश्वास छोटा हो गया है ।
आदमी की शोर से आवाज़ नापी जा रही है
घण्टियों से वक़्त की परवाज़ नापी जा रही है
देश के भूगोल में कोई बदल आया नहीं है
हाँ, हृदय का आजकल इतिहास छोटा हो गया है ।
यह मुझे समझा दिया है उस महाजन की बही ने
साल में होते नहीं हैं आजकल बारह महीने
और ऋतुओं के समय में बाल भर अन्तर न आया
पर न जाने किस तरह मधुमास छोटा हो गया है ।
</poem>
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