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09:20, 25 नवम्बर 2021 {{KKRachna
|रचनाकार=निर्मल 'नदीम'
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
बदन पे ख़ाक वो अपनी लगा के लेटा है,
फ़लक को पांव के नीचे दबा के लेटा है।
अफ़ीम अपने ग़मों की वो खा के लेटा है,
ग़ुरूर ए इश्क़ को तकिया बना के लेटा है।
झुलस रहा है सितारों का जिस्म गर्मी से,
जुनूँ की आग से वो दिल जला के लेटा है।
अब उसके ज़र्फ़ पे क्यों हो न दो जहां क़ुर्बान,
जो कहकशां को भी घर में सजा के लेटा है।
अब उसकी लाज भी अल्लाह रखने वाला है,
जो उसकी शान में दुनिया लुटा के लेटा है।
किसी के रहम ओ करम से नहीं बुलंदी है,
वो कोहसार पे अपनी अना के लेटा है।
है उसके पांव की मिट्टी में एक गंजीना,
वो अपना दर्द उसी में छुपा के लेटा है।
हवा के पांव से बांधी है मौत की आहट,
वफ़ा के दश्त में धूनी रमा के लेटा है।
वो बोरिया जिसे तबरेज़ ओढ़ा करता था,
उसे नदीम ज़मीं पर बिछा के लेटा है।</poem>