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{{KKRachna
|रचनाकार=विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ'
|संग्रह=आओ नई सहर का नया शम्स रोक लें / विनोद प्रकाश गुप्ता 'शलभ'
}}
[[Category:ग़ज़ल]]
<poem>

बंद हाेने से ही लाखाें की हुई ,
खुल गई ताे फिर कहाँ मुट्ठी हुई ।

चीख़ती है ख़्वाहिशें शमशान में ,
इस क़दर रुस्वा काेई मिट्टी हुई ।

जूतियाें की नाेक पर रख - रख के ही ,
उनकी पेशानी है यूँ चमकी हुई ।

अब कहाँ सच बाेलता है आईना ,
इसलिए उससे मेरी कुट्टी हुई ।

हम सभी कठपुतलियाँ हैं नाचतीं ,
है हुकूमत की नज़र हँसती हुई ।

जाने किसकाे साैंप दे ईमान अब ,
है अना अपनी कहीं भटकी हुई ।

जब मरेगा तू ‘शलभ’ देखेंगे सब ,
लाश ट्विटर पे तेरी जलती हुई ।
</poem>