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टेलीविज़न / रघुवीर सहाय

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<poem>
मैं सम्पन्न आदमी हूँ, है मेरे घर में टेलिविज़न
दिल्ली और बम्बई दोनों के बतलाता है फ़ैशन
कभी-कभी वह लोकनर्तकों की तस्वीर दिखाता है
पर यह नहीं बताता है उनसे मेरा क्या नाता है
हर इतवार दिखाता है वह बम्बइया पैसे का खेल
गुण्डागर्दी औ नामर्दी का जिसमें होता है मेल
कभी कभी वह दिखला देता है भूखा-नंगा इनसान
उसके ऊपर बजा दिया करता है सारंगी की तान

कल जब घर लौट रहा था देखा उलट गई है बस
सोचा मेरा बच्चा इसमें आता रहा न हो वापस
टेलिविज़न ने खबर सुनाई पैंतीस घायल एक मरा
ख़ाली बस दिखला दी ख़ाली, दिखा न कोई चेहरा
वह चेहरा जो जिया या मरा व्याकुल जिसके लिए हिया
उसके लिए समाचारों के बाद समय ही नहीं दिया

तब से मैंने समझ लिया है आकाशवाणी में बनठन
बैठे हैं जो ख़बरों वाले वे सब हैं जन के दुश्मन
उनको शक था दिखला देते अगर कहीं छत्तीस इनसान
साधारण जन अपने लड़कों को लेता पहचान
ऐसी दुर्भावना लिए है जन के प्रति जो टेलिविज़न
नाम है दूरदर्शन है उनका काम किन्तु है दुर्दशन

1978
</poem>
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