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14:34, 28 जनवरी 2022 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रेखा राजवंशी
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<poem>
कमरे में छनती
नर्म धूप ने
मुझको सहलाया
ठंडी हवा ने
हौसला बढ़ाया
पत्तों से ढलकती
ओस ने
मन को बहलाया
और मिट्टी में
अंकुरित पौध ने
मुझसे कहा
देखो, मैं तो वही हूँ न
मैंने कौतूहल भरी
डबडबाती आँखों से देखा
घुलने लगी फिर
विषाद की रेखा
हाँ, ये तो
वाघी आकाश है
वही सूरज है
वही प्रकाश है
कंगारूओं के देश में
सब कुछ है वही
वही धरती
वही हवा
वही प्रकृति
मैंने आँचल का छोर
ढीला किया
और बिखेर दिए
बीज भारतीयता के।
</poem>