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14:34, 28 जनवरी 2022 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रेखा राजवंशी
|अनुवादक=
|संग्रह=
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<poem>
कंगारूओं के देश में
अब मैं प्रवासी हूँ
वो प्रवासी, जो विदेश में
बन जाता है अंजान
वो प्रवासी, जो बार-बार
ढूंढता है अपनी पहचान।
लिए रहता है जो मन में
अपना गाँव, अपना बचपन
थामे रहता है जो हरदम
अपनी दल्हीज़, अपना आँगन
खोजता है जो अपनापन
रीतियों और रिवाजों में
सारे सुख के बावजूद
पाता है शांति
फोन पर अपनों की आवाजों में
तो अब मैं प्रवासी हूँ
प्रवासी, जिसके दिल में
भारत हर पल धड़कता है
प्रवासी, जो हर पल
देश जाने को तरसता है।
</poem>