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09:51, 30 जनवरी 2022 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=अलिक्सान्दर सिंकेविच
|अनुवादक=गिरधर राठी
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
सर्दी के मौसम और रात में
रटते हुए बारम्बार पाठ
मैंने सीखी एक भाषा पूरब की
ताकि समझ सकूँ तुम्हें आद्यन्त ।
और तुम सोई थीं ...
किस शताब्दी में
किन प्रज्ञाओं से घिरी हुई ?
तुम्हारी पलकों ने हरकत की
ज्यों समुद्री घोंघे के किनारों ने ।
तुम्हें जल्दी उठना होगा
और तुम मन्द-मन्द सांसें लेती सोती रहीं ।
किस सागर-शैया पर
तुम्हारी आत्मा बन गई मोती ?
किन्तु तुम्हारी वह वाणी ...
वह मुझसे दूर खिसकती रही,
मेरी समझ से दूर ।
तुम्हारे होठों पर मधुर थी वह
मगर मेरे मुँह में तिक्त
मैं बैठे-बैठे घोखता रहा
गूँगी किताबों के पन्ने ।
लेकिन बर्फ़ के टीले की तरह
उसने लगा दिया ढेर
अपनी वर्णमाला का ।
मैं पुचकारता रहा उसे जैसे जानवर को,
और जब तक मुझ पर विश्वास से पूर्ण
उसने चाट नहीं लिए मेरे होंठ,
मैं सोया नहीं ।
'''अँग्रेज़ी से अनुवाद : गिरधर राठी'''
'''लेनिन जन्म शताब्दी पर 1970 में प्रकाशित आलोचना के विशेषांक से'''
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