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|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'
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<poem>
148
सम्बन्धों की दौड़ में, तुमसे वह सम्बन्ध।
सबसे ऊपर प्यार है , कोई न अनुबंध।
149
नहीं स्वाति के नीर की , नहीं अमृत की प्यास।
कण्ठ लगा लो तुम मुझे, यही बची इक आस।
150
छल प्रपंच ने कर दिया, जब जीवन दुश्वार।
बोल प्रेम के बोलकर , महकाया मन द्वार।
151
गर्म उँगलियों से लिखा,करतल पर जो प्यार ।
जीवन में इससे बड़ा, कोई ना उपहार ॥
152
तुम हो दरिया प्रेम का, मैं डूबा हर बार।
समा गया तुझमें सदा, नहीं पहुँचना पार।
153
तुझमें मिर्मल नीर है, सागर- सा विस्तार।
मुझे छोड़ जाना नहीं, तुम प्रियवर इस बार।
-0-
13-01-2022-दोहे
154
तेरा दुख देता मुझे, जग की दारुण पीर।
तेरी ख़ुशियाँ से उड़े , मन में सदा अबीर।
155
नयनों के आँसू चुनूँ , मन का बनूँ मराल।
दे दूँ खुशियों का गगन, गले पुष्प की माल।
156
मुझे कभी ना चाहिए, स्वर्ग, मुक्ति का द्वार।
धन सबसे ऊपर प्रिये, केवल तेरा प्यार।
157
प्रणव बनकर प्राण प्रिया, रोम -रोम में नाद।
इसी तरह करना सदा, मेरा उर आबाद।
158
शैलशिखर से भी बड़ी, प्रियवर तेरी पीर।
दे नहीं सका सुख तुम्हें, मन है बहुत अधीर।
159
आकर के भुजपाश में, दे दो अपना प्यार।
मैं आकुल इस पार हूँ, तुम व्याकुल उस पार ।
160
जब- जब देखा है तुम्हें, मैंने आँखेँ मूँद।
तुम सागर हो प्यार के, मैं हूँ तेरी बूँद।
'''( 05-02-22)'''