Changes

'{{KKGlobal}} {{KKAnooditRachna |रचनाकार=नाज़िम हिक़मत |संग्रह= }} Category:तु...' के साथ नया पृष्ठ बनाया
{{KKGlobal}}
{{KKAnooditRachna
|रचनाकार=नाज़िम हिक़मत
|संग्रह=
}}
[[Category:तुर्की भाषा]]
{{KKCatKavita}}
<poem>
हलकी हरी हैं मेरी महबूबा की आँखें
हरी
जैसे अभी-अभी सींचा हुआ
तारपीन का रेशमी दरख़्त,
हरी
जैसे सोने के पत्तर पर
हरी मीनाकारी ।
ये कैसा माजरा है, बिरादरान,
कि नौ सालों के दौरान
एक बार भी उसके हाथ
मेरे हाथों से नहीं छुए ।
मैं यहाँ बूढ़ा हुआ
वह वहाँ ।
मेरी दुख़्तर-बीवी
तुम्हारी गुदाज़-गोरी गरदन पर
अब सलवटें उभर रही हैं ।
सलवटों का उभरना
इस तरह नामुमकिन है हमारे लिए
बूढ़ा होना ।
जिस्म की बोटियों के ढीले पड़ने को
कोई और नाम दिया जाना चाहिए,
उम्र का बढ़ना
बूढ़ा होना
उन लोगों का मर्ज़ है जो इश्क़ नहीं कर सकते ।

१९४७

''' अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुरेश सलिल'''
</poem>
Delete, Mover, Protect, Reupload, Uploader
53,612
edits