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15:57, 30 मार्च 2022 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=प्रभात
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<poem>
ये जो बजरी छान रही है
जूतियाँ सिला करते थे
इसके देवर जेठ
ये जो ईंटें ढो रही है
चाक चलाया करते थे
इसके महतारी बाबुल
ये जो रेत भर रही है तगारी में
गेहूँ के पूड़े बाँधा करते थे
इसके सास ससुर
ये जो सीमेण्ट मिला रही है
चरखी चला करती
इसके पीहर में चाँद के नीचे
ये जो मिल बैठकर
रोटी खा रही हैं
दोपहरी कर रही हैं
बनते हुए मकान की छाया में
इन सबकी जगह अब
मशीनें आ गईं
जो इनसे बेहतर तरीक़े से
निपटाती हैं हर काम
तो अब इनका क्या हो
इनके सामने हो न हो
सभ्यता के सामने है यह सवाल
एक दिन एक मोबाइल हाॅस्पिटल
आता है गाँव में
तमाम बेकार औरतों को
इकट्ठा किया जाता है
उनके शरीरों के अंग निकाले जाते हैं
जिन्हें लगाया जाना है
अमीरों के अधिक खाने पीने से
सड़ गल गए अंगों की जगह
मोबाइल हाॅस्पिटल
उनके जीवित अंगों को लिए
जाता है महानगर की ओर
पृथ्वी पर जलती है
शरीरों के कचरे की चिताएँ
जिनके आसपास
न कोई क्रन्दन न कोई सिसकी
न किसी तरह की हवा का ही
कम अधिक शोर
</poem>
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