मारा गया ! ... मगर अब यह रोना-धोना,
व्यर्थ प्रशंसा समवेतों से क्या मिलना ?
चाह रहे यों दोष-मुक्त तुम तो होना ?
हुआ वही जो कर बैठी निर्णय विधना !
क्या न तुम्हीं ने पहले बेहद जल-भुनकर
उसकी मुक्त और साहसी प्रतिभा पर
वार किए थे, और आग वह भड़काई
मन-विनोद को, राख ज़रा जिस पर आई ?
और चाहिए क्या अब तुम को ? तुम नाचो,
नहीं यातनाएँ वह अन्तिम सह पाया,
उस अद्भुत्त प्रतिभा का उजला सूर्य छिपा,
पुष्प-हार अब तो उत्सव का मुरझाया ।
ऐसी निर्दयता से उस हत्यारे ने
गोली दागी ... वार न जो ख़ाली जाए,
हृदय भावनाहीन धड़कता समगति से
हाथ तमंचा लिए न कम्पित हो पाए ।
इसमें क्या आश्चर्य ? पराये देशों से
ऊँचे-ऊँचे पद, औ’ दौलत की ख़ातिर,
अन्य सैकड़ों जैसे आए भागे यहाँ,
उसको भी क़िस्मत ने फेंक दिया लाकर,
रूसी धरती, भाषा, रीति-रिवाजों का
जिसने था उपहास उड़ाया, कर अपमान
तरस न आया उसे हमारे गौरव पर
समझ न पाया ख़ूनी क्षण में, रहा अजान
किसपर उसका हाथ उठा, ली किसकी जान ! ...
वह तो मारा गया — क़ब्र में अब सोया
उस गायक-सा, जो अति प्यारा, पर अज्ञात
हसद, ईर्ष्या अन्धी का जो हुआ शिकार,
बड़े ओज से जिसको उसने ख़ुद गाया
जैसे इस पर, वैसे ही तो उस पर भी
निर्दयता से किया गया था घातक वार ।
सरल दिलों का प्यार त्याग, अति सुख-दाता
मुक्त, भावनापूर्ण हृदय को जो बींधे
घुटन, हसद के जग से क्यों जोड़ा नाता ?
तुच्छ चुग़लख़ोरों से हाथ मिलाया क्यों ?
झूठे शब्दों, स्नेहों में भरमाया क्यों ?
वह, जिसने बचपन से लोगों को जाना,
उनके दिल को पहचाना ? ...
पहला मुकुट उतारा, कण्टक-मुकुट नया
रक्खा उसने सिरपर, उसको ख़ूब सजा,
छिपे हुए काँटों ने लेकिन तन हीरा
छिपे-छिपे उसका चीरा;
मूढ़ों की अफ़वाहों, निन्दा, चुग़ली ने
उसके अन्तिम क्षण विष भरे बना डाले
चला गया वह आशाओं का ख़ून लिए
विफल तमन्ना बदले की दिल में पाले,
मूक हो गए स्वर अब अद्भुत्त गीतों के
फिर से उनकी गूँज न कभी सुनाई दे,
म्लान, तंग डेरा है कवि का, वहाँ तिमिर
लगी हुई होठों पर चुप की अमिट मुहर ।
और सुनो तुम, अभिमानी वंशज उनके,
जिनके पुरखे ख्याति नीचता से पाए,
ख़ुद हो दास, मगर यह केवल क़िस्मत है
गिरे हुओं को रौन्द, ज़ुल्म तुमने ढाए !
सिंहासन को लालच से जो घेरे हो
तुम, आज़ादी, यश, प्रतिभा के हत्यारे !
आड़ बना कानून तुम्हारे तो सम्मुख
न्याय, सत्य, सब बैठे हैं चुप्पी मारे ...
लेकिन प्रभु का न्याय, सुनो भ्रष्टाचारी !
अति कठोर प्रभु न्याय राह जो देख रहा,
सोने की छनकार न जिसको जीत सके,
भाव तुम्हारे और न जिससे काम छिपा ।
साथ न तब तो झूठ, न अफ़वाहें देंगी
नहीं बच सकोगे उन चीज़ों से तुम तो
जिन चीज़ों ने अब तक तुम्हें बचाया है ।
धो न सकोगे अपना काला ख़ून बहा
कवि का जो यह तुमने ख़ून बहाया है !
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